गायत्री परिवार के रहे अतिथी, माना आभार
Betul Ki Khabar/भैंसदेही (मनीष राठौर) :- भैसदेही शासकीय महाविद्यालय भैंसदेही में आदि गुरु शंकाराचार्य जी की जन्म जयंती एक पखवाड़े के रूप में मनाया गया।जिसमें आदि गुरु शंकराचार्य जयंती का शुभारंभ उनके चित्रों पर माल्यार्पण कर पुष्पांजलि कार्यक्रम किया गया। सर्वप्रथम आए हुए अतिथियों का स्वागत किया गया। स्वागत के पश्चात ब्लॉक समन्वयक मध्य प्रदेश जन अभियान परिषद विकास कुमरे ने इस कार्यक्रम की रूपरेखा रखी। उसके पश्चात आदि गुरु शंकराचार्य जी का जीवन परिचय डॉ ब्रह्मदेव उघड़े द्वारा प्रदान किया गया। जिसमें शंकराचार्य का जन्म 507 ई.स.पू. में केरल में कालड़ी अथवा ‘काषल’ नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम शिवगुरु भट्ट माता का नाम अयंबा था। बहुत दिन तक सपत्नीक शिव को आराधना करने के अनंतर शिवगुरु ने पुत्र-रत्न पाया था, अत: उसका नाम शंकर रखा। जब ये तीन ही वर्ष के थे तब इनके पिता का देहांत हो गया। ये बड़े ही मेधावी तथा प्रतिभाशाली थे। छह वर्ष की अवस्था में ही ये प्रकांड पंडित हो गए थे और आठ वर्ष की अवस्था में इन्होंने संन्यास ग्रहण किया था। इनके संन्यास ग्रहण करने के समय की कथा बड़ी विचित्र है। कहते हैं, माता एकमात्र पुत्र को संन्यासी बनने की आज्ञा नहीं देती थीं। तब एक दिन नदीकिनारे एक मगरमच्छ ने शंकराचार्यजी का पैर पकड़ लिया तब इस वक्त का फायदा उठाते शंकराचार्यजी ने अपने माँ से कहा ” माँ मुझे सन्यास लेने की आज्ञा दो नहीं तो हे मगरमच्छ मुझे खा जायेगी “, इससे भयभीत होकर माता ने तुरंत इन्हें संन्यासी होने की आज्ञा प्रदान की ; और आश्चर्य की बात है कि, जैसे ही माता ने आज्ञा दी वैसे तुरन्त मगरमच्छ ने शंकराचार्यजी का पैर छोड़ दिया। और इन्होंने गोविन्द नाथ से संन्यास ग्रहण किया।
पहले ये कुछ दिनों तक काशी में रहे, और तब इन्होंने विजिलबिंदु के तालवन में मण्डन मिश्र को सपत्नीक शास्त्रार्थ में परास्त किया। इन्होंने समस्त भारतवर्ष में भ्रमण करके वेदिक धर्म को पुनरुज्जीवित किया।32 वर्ष की अल्प आयु में सम्वत 475 ई.पू. में केदारनाथ के समीप शिवलोक गमन कर गए थे। कार्यक्रम में गायत्री परिवार भैंसदेही के ब्लॉक समन्वयक शंकर राव कडु के द्वारा शंकराचार्य के विषय में कहा आठ वर्ष की आयु में चारों वेदों में निष्णात हो गए, बारह वर्ष की आयु में सभी शास्त्रों में पारंगत, सोलह वर्ष की आयु में शांकरभाष्यतथा बत्तीस वर्ष की आयु में शरीर त्याग दिया। ब्रह्मसूत्र के ऊपर शांकरभाष्यकी रचना कर विश्व को एक सूत्र में बांधने का प्रयास भी शंकराचार्य के द्वारा किया गया है, जो कि सामान्य मानव से सम्भव नहीं है। शंकराचार्य के दर्शन में सगुण ब्रह्म तथा निर्गुण ब्रह्म दोनों का हम दर्शन, कर सकते हैं। निर्गुण ब्रह्म उनका निराकार ईश्वर है तथा सगुण ब्रह्म साकार ईश्वर है। जीव अज्ञान व्यष्टि की उपाधि से युक्त है। तत्त्वमसि तुम ही ब्रह्म हो; अहं ब्रह्मास्मि मैं ही ब्रह्म हूं; ‘अयामात्मा ब्रह्म’ यह आत्मा ही ब्रह्म है; इन बृहदारण्यकोपनिषद् तथा छान्दोग्योपनिषद वाक्यों के द्वारा इस जीवात्मा को निराकार ब्रह्म से अभिन्न स्थापित करने का प्रयत्न शंकराचार्य जी ने किया है। ब्रह्म को जगत् के उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय का निमित्त कारण बताए हैं। ब्रह्म सत् (त्रिकालाबाधित) नित्य, चैतन्यस्वरूप तथा आनंद स्वरूप है। ऐसा उन्होंने स्वीकार किया है। जीवात्मा को भी सत् स्वरूप, चैतन्य स्वरूप तथा आनंद स्वरूप स्वीकार किया है।
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जगत् के स्वरूप को बताते हुए कहते हैं कि –
अर्थात् नाम एवं रूप से व्याकृत, अनेक कर्ता, अनेक भोक्ता से संयुक्त, जिसमें देश, काल, निमित्त और क्रियाफल भी नियत हैं। जिस जगत् की सृष्टि को मन से भी कल्पना नहीं कर सकते, उस जगत् की उत्पत्ति, स्थिति तथा लय जिससे होता है, उसको ब्रह्म कहते हैं। सम्पूर्ण जगत् के जीवों को ब्रह्म के रूप में स्वीकार करना, तथा तर्क आदि के द्वारा उसके सिद्ध कर देना, आदि शंकराचार्य की विशेषता रही है। इस प्रकार शंकराचार्य के व्यक्तित्व तथा कृतित्वके मूल्यांकन से हम कह सकते हैं कि राष्ट्र को एक सूत्र में बांधने का कार्य शंकराचार्य जी ने सर्वतोभावेनकिया था। भारतीय संस्कृति के विस्तार में भी इनका अमूल्य योगदान रहा है। परामर्शदाता श्री शिवचरण बावने जी द्वारा आदि गुरु शंकराचार्य जी के बारे में भी जानकारी दी गई। जन अभियान परिषद के ब्लॉक समन्वयक विकास कुमरे ने आए हुए अतिथियों का आभार व्यक्त किया गया। इस कार्यक्रम मुख्य रूप से गायत्री परिवार ब्लॉक समन्वयक भैंसदेही शंकर जी कडु,डॉ ब्रह्मदेव उघडे, पंजाब राव देशमुख जी, मध्य प्रदेश जन अभियान परिषद भैंसदेही ब्लॉक समन्वयक विकास कुमरे एवं परामर्शदाता में सरावन मन्नासे, शिवचरण बावने, सत्यदेवी लोखंडे, सोहन सिंह काकोड़िया, एवं BSW, MSW के सभी छात्र /छात्राएं उपस्थित रहे।